Thursday, June 12, 2008

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मैं.
एक अनूठा अनोखा शब्द “मैं”.
कभी मेरी सक्शियत को सवार्ता,
कभी उसे दूसरों से जुदा करता है यह "मैं".
कभी ख़ुद मैं इतना घुल जाता की
ख़ुद से हे डर जाता है यह "मैं"।
कोई इसे मेरा स्वार्थ कहता
कोई इसे मेरी अस्तित्व की पहचान बताता
मगर इन सब से जुदा है मेरा "मैं"।
यह एक साया सा है,
अपनों को पराया करता,
और परायों को अपना करता,
शायद एक माया सा है.
मैं ख़ुद भी नही जनता की "मैं" क्या है।
अकेलेपन का डर,
या उसका एक अंश.
भीड़ से अलग एक पहचान बनने की कोशिश,
या उसी का हिसा बनने का प्रयत्न
बस इतना जनता हूँ की मेरा हमेशा साथ देनेवाला साथी है यह,
मेरा आनेवाला कल और मेरा माजी है यह।

1 comment:

Unknown said...

good thinking but may be someone also ready 2 stand with u when u r feeling lonely